नई दिल्ली: ‘मेड इन इंडिया’ योग विज्ञान अब फिटनेस फैशन का जरूरी हिस्सा बन चुका है। अपने नए अवतार में योग ‘योगा क्लास’ के शोरगुल में अपडेट हो चुका है। लेकिन वैदिक ज्ञान की ‘लेबलिंग’ के साथ महानगरों में योगा सेंटर्स का बोलबाला जोरों पर हैं। जिमनेजियम में मशीनों पर पसीना बहाने और रोजाना खुद को तोल कर घटता हुआ देखने की सनक में लोगों ने योग आसनों को भी एक फास्ट रिजल्टिंग ऑप्शन के तौर पर आजमानी शुरू कर दिया है।
बाबा रामदेव की शौहरत और बुलंदी को छूते कारोबार की चकाचौंध और मोदी सरकार में अंतराष्ट्रीय योग दिवस के बाद से योग खासकर प्राणायाम के पुराने नुस्खे इस दौर में अपनी लोकप्रियता के चरम पर हैं। हालांकि योग आसनों को वजन घटाने की सीधी-उल्टी सभी तकनीकों से बेतुके मुकाबले भी झेलने पड़ रहे हैं। मगर योग शिक्षकों से लेकर कुछ नया तलाशने में लगे नए-नवेले साधकों को भी योग का ये नया वर्जन काफी माफिक आ रहा है। क्या सच में हजारों साल पुरानी इस वैज्ञानिक पद्धति ‘योग’ को इसी ऊंचाई की तलाश थी? आसनों और प्राणायाम ये ही फास्ट फूड स्टाइल के फास्ट रिजल्ट ओरिएंटिड साधक चाहिए थे? क्या योग महज रोजाना के वर्क आउट का एक छोटा सा हिस्सा होना चाहिए? और सबसे अहम सवाल हर बार अपने ही पुराने विज्ञान को स्वीकारने के लिए हमें ‘USA रिटर्न’ के ठप्पे की जरूरत क्यूं होती है? सवाल और भी हैं...।
सबसे पहले कुछ गलतफहमियों को समझने और उनसे बाहर निकलने की दरकार है। योग संहिता का पहला सूत्र जीवेम शरदः शतम् (आप सौ साल निरोगी जीवन जिएं) रहा है। एक योग शिक्षक के नाते मेरे पास अक्सर कुछ लोग योग आसन करा कर एक महीने में पांच किलो वजन घटाने या फिर हाथों-पैरों का दर्द दूर करने का सौदा करना चाहते हैं। किसी शॉपिंग मॉल के ‘कांबो पैक’ की तर्ज पर आधा या पौना घंटे की क्लास में प्राणायाम, योग आसनों की लंबी फेहरिस्त, घटता हुआ वजन, ध्यान समेत सभी कुछ परोस देना योगविज्ञान के लिए अक्सर दिक्कतजदा होता है। फायदों के लालच में कुछ हफ्ते और कुछ ‘रेयर’ मामलों में एक-दो महीनों तक योग करने के बाद कुछ मामलों में लोगों का भरोसा ही योग विद्या से उठ जाता है। मगर जाहिर है, फेफड़ों की बढ़ती ताकत या किड्नी, श्वसन तंत्र समेत पूरे तंत्रिका तंत्र के दूर होते रोगों की धीमी रफ्तार को महज वजन कम होने के गणित में नहीं तोला जा सकता। ऐसे में कार्डियो वर्क आउट और एरोबिक्स, स्पिनिंग सेक्शन की फास्ट बीट पर पसीना बहाने की सहूलियत के तराजू में योग को तोलना और दोनों पलड़ों की बराबरी तलाशना योग शिक्षक के नाते मुझे नागवार गुजरता है।
ऐसे में मेरा सवाल सीधा-साधा है? आपको मजबूत बाजू चाहिए या फिर मजबूत फेफड़े? महज वजन घटाना है या निजात पानी है बीमारियों की लंबी फेहरिस्त से। आपको हर बार ऐसा क्यूं लगता है कि बाबा रामदेव के शिविर में जो लोग हाथ उठा कर अपनी बीमारियों के ठीक होने की हामी भरते हैं वे योग गुरु के जरखरीद गुलाम हैं ?
एक योग शिक्षक के तौर पर मै आसानी से कह सकता हूं कि योग कक्षाओं में आपको हट्टे-कट्टे बाईसेप्स प्राचिल, लेट्टिसिमस डॉर्सी मसल्स नहीं मिल सकते। योग कक्षाओं में ऐरोबिक्स सरीखे पसीना बहाने के ऑॅप्शन भी उतने नहीं होते, इनमें पिलाटे सरीखी नई-नकोर आर्ट सरीखा ग्लैमर नहीं है। मगर सही शेप और रातों रात रिजल्ट की चाहत में आने वाले कल को नजर अंदाज करना या आंखें मूंद कर गलत-सही कैमिकल खुराक लेते जाने को आप किस तरह सही ठहराएंगे? जिम की दुनिया में गैर जानकार और अक्सर कम पढ़े-लिखे जिम ट्रेनर से दवाइयां खरीदने वाले ग्राहकों की तादाद रोजाना बढ़ती जा रही है। जाहिर है, जिम में खुलेआम बिकते महंगे कैप्सूल्स या पाउडर के बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता। वहीं ज्यादा से ज्यादा असरदार दवाओं के फेर में कई बार ग्राहक सिर्फ महंगे दामों पर बीमारिया खरीद डालते हैं। इनके गंभीर परिणाम हर स्तर पर सामने आ रहे हैं। सेहत की दुनिया में ऐसे उदाहरण रोजाना सामने आते हैं जिनमें इन दवाइयों या सप्लिमेंट्स से रातों-रात मसल्स बढ़ाने या घटाने के चमत्कार हुए, मगर कुछ ही वक्त में इनके साइड इफेक्ट ने एक स्वस्थ तंदरुस्त कसरती बदन को अस्पताल तक पहुंचा दिया।
यहां मेरा मकसद जिम कल्चर को नकारना हरगिज नहीं है। अलबत्ता इसी अवेयरनेस की बदौलत बिगड़ी हुई लाइफ स्टाइल एक हद तक ढर्रे पर आती दिख रही है। अकेले राजधानी दिल्ली में रोजाना सुबह दस लाख से ज्यादा लोग अगर सुबह के कुछ घंटे अपनी सेहत के लिए निकाल रहे हैं तो इसे किसी भी तर्क से गलत नहीं ठहराया जा सकता। यहां तक कि चिकित्सक भी अपने दवाई के पर्चे पर जिम जाकर पसीना बहाने की सलाह देने लगे हैं। ऐसे में निजी समाधान के तौर पर मैं लोगों को जिम के साथ-साथ सप्ताह में दो से तीन दिन योग के लिए समय निकालने और बिना किसी कैमिकल डाइट के सही गाइडेंस में काम करने की सलाह देता हूं।
योग विज्ञान के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामया...’ के सिद्धान्त का झंडा बुलंद करने के लिए मुझे किसी सही-गलत उदाहरण को हाई लाइट करने की जरूरत नहीं। इसमें सुबह जल्दी उठने, रोगों से लड़ने के लिए शरीर को तैयार करने, अपने मसल्स की जगह अपने शारीरिक अंगों को अंदर से मजबूत बनाने और लंबी जीवन पद्धति को जीने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार करने पर कोई सवालिया निशान लगाया भी नहीं जाना चाहिए। आयुष्मान भवः...!