देहरादून। नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखंड के आंदोलनकारियों को एक बड़ा झटका दिया है। कोर्ट ने उन्हें सरकारी नौकरियों में क्षैतिज 10 फीसदी आरक्षण देने के फैसले को खारिज कर दिया है। बता दें कि इस मामले में हल्द्वानी के करुणेश जोशी द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की एकलपीठ ने सरकार के इस प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 16(4) जोकि समानता की गारंटी देता है की भावना के विरुद्ध बताते हुए उसे रद्द कर दिया। इस मामले में एकलपीठ के सामने सभी पक्षकारों ने दलीलें प्रस्तुत कर दी थी।
गौरतलब है कि एकलपीठ ने जून 2017 में इस मामले में हुई सुनवाई का भी संज्ञान लिया। इसमें न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया के आरक्षण के खिलाफ दिए गए फैसले पर न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की एकलपीठ ने सहमति व्यक्त की और आरक्षण को गैर संवैधानिक बताया है। बता दें कि प्रदेश सरकार ने अगस्त 2004 में राज्य के आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरी में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था। इसमें प्रदेश में तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। इसके तहत जिला स्तर पर पात्र राज्य आंदोलकारियों को नौकरियां भी दी गई।
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यहां बता दें कि हल्द्वानी के करुणेश जोशी ने इस मामले में हाईकोर्ट में मामला दर्ज कराया था। 2007 में दायर याचिका में उन्होंने कहा था कि राज्य आंदोलनकारी होने के बावजूद नैनीताल के डीएम उन्हें सरकारी विभाग में नियुक्ति नहीं दे रहे हैं लेकिन हाईकोर्ट की एकलपीठ ने इस याचिका को 11 मई 2010 को खारिज कर दिया। इस बीच सरकार ने 13 अप्रैल 2010 को आरक्षण को लेकर नई नियमावली बना दी। इसके बाद करुणेश ने दोबारा कोर्ट में रिव्यू पिटिशन डाला, अदालत ने इसे भी खारिज कर दिया लेकिन उसे इस बात की सलाह दी कि मामला की सुनवाई जनहित याचिका के तौर पर सुनवाई कर सकती है जिसे तत्कालीन चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति बारिन घोष ने स्वीकार कर लिया था।
यहां गौर करने वाली बात है कि इस जनहित याचिका ‘द मेटर ऑफ अपायमेंट ऑफ एक्टिविस्ट’ नाम दिया गया। दूसरी ओर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह समेत प्रदेश के सभी डीएम व राज्य आंदोलनकारी मंच को पार्टी बनाया गया। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की एकलपीठ ने इस पर अपना फैसला सुनाया है।