हल्द्वानी। उत्तराखंड की लोक संस्कृति की पहचान है यहां के गाने। पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते चलने के कारण आज ये खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है। न्योली सम्राट लोक गायक नैननाथ रावल स्थानीय संस्कृति की खराब स्थिति से काफी चिंतित हैं। उनका कहना है कि आज की संगीत से गांवों का दूर होता जाना हमेशा दुख देता है। उनका कहना है लोक संगीत लोगों के दुख दर्द को बयां करते हैं।
लोगों की संवेदना व्यक्त करने का जरिया
गौरतलब है कि राज्य के लोकगीत मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करने का एक अहम जरिया है। लोक गीत हमारा दुख-दर्द बयां करते हैं। इसी कारण झोड़ा, चांचरी, न्योली, छपेली, भगनौल आदि हमेशा से जनमानस के करीब रहे हैं।
वापस आएगी पुरानी संस्कृति
अगर कुछ सालों की बात करें तो पिछले दस-बारह सालों में लोक संगीत में काफी बदलाव आया है। तड़क-भड़क वाले गीत अब अधिक लिखे और गाए जाते हैं। प्रदेश के लोकगायक नैननाथ रावल ने इस बात की आशंका जताई कि अगर ऐसे ही गाने लिखे जाते रहे तो जल्द ही लोक संस्कृति खत्म हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि लोगों के सामने जिस तरह की चीजें लगातार परोसी जाएंगी, वही लोगों का टेस्ट बन जाएगा। रावल ने उम्मीद जताई कि जल्दी ही पुराने गानों का दौर एक बार फिर से लौटेगा।
युवाओं में बढ़ानी होगी दिलचस्पी
लोकगायक नैननाथ रावल ने कहा कि उत्तराखंड की संस्कृति को बचाने के लिए युवाओं में इसके प्रति दिलचस्पी बढ़ानी होगी। उनमें कुमाऊंनी लोक संस्कृति की अलख जगानी होगी। इसके लिए गीत, झोड़ा, न्योली, चांचरी और छपेली क्या हैं। इन गीतों को किन मौकों पर गाया जाता है ये सब माता-पिता को अपने बच्चों को सिखाना पड़ेगा तभी यह संस्कृति जिन्दा रह सकती है।