भारतीय लोकतंत्र की सेहत का पैमाना अगर किसी को मापना हो तो वह राजनीति में इस्तेमाल होने वाली भाषा पर गौर करे। हमारी सेहत में थोड़ा सा भी उतार-चढ़ाव होता है तो हम फौरन डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं। लोकतंत्र बेचारा क्या करे, जब इसकी सेहत डाउन होती है तो इसके तीमारदार (राजनेता) इसपर और प्रहार करते हैं। चुनाव में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर नेता सोचते हैं हमने जग जीत लिया। लोकतंत्र गूंगा ज़रूर है लेकिन बहरा नहीं है। उसको सबकुछ समझ में आता है और चोट भी लगती है।
अगर भाषा के तराजू पर हम राजनेताओं को तौलेंगे तो हमें दोनों पलड़ा बराबर ही मिलेगा। बयानबाजी में कोई किसी से कम नहीं है। खाली बयानबाजी हो तो कानों को सुनकर अटपटा न लगे, ये तो एक-दूसरे के खिलाफ अपशब्द और अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं जिसको सुनकर भविष्य में नेता बनने और राजनीति करने का सपना देख रहे बच्चों का भी मन फीका हो जाता है। हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि राजनीति में भाषा की एक मर्यादा होती है। इस कसौटी पर हमारी राजनीतिक पार्टियां और नेतृत्व कहां ठहरता है?
आखिर हमारे नेता भाषा की मर्यादा को क्यों लांघ जाते हैं? इस सवाल के आते ही दिमाग में विचारों की झड़ी लग जाती है। अपने वैचारिक क्षमता के अनुसार सब सोचने लग जाते हैं। सच पूछो तो राजनीति में भाषा की कोई मर्यादा ही नहीं तय होनी चाहिए। ये तो दीये को रोशनी दिखाने की बात हो गई न। बेचारे नेताओं को कितना कष्ट होता है चुनावी सभाओं में। उनको मर्यादा की कितनी समझ है तुम क्या जानो।
ऐसा क्यों होता है? इसका एक कारण तो राजनीति की प्रकृति में है जिसमें खुद को औरों से बेहतर होने, दूसरों को खोटा सिद्ध करने और अपने को एकमात्र विकल्प बताने की होड़ हमेशा चलती रहती है। अगर यह आत्मविश्वास न हो कि हम औरों से बेहतर हैं, तो संगठित होने का बौद्धिक और भावनात्मक आधार ही टूट जाएगा। हमारे राजनीतिकों ने अपने गिरेबां में झांकना छोड़ दिया है। इसीलिए उन्हें दूसरों में तो खोट ही खोट नजर आते हैं, अपने में और अपनों में कोई खोट नहीं दिखता।
राजनीति में अच्छे और बुरे सब तरह के लोग होते हैं। सवाल है कि बुरे पहलू तो दिख रहे हैं, अच्छे पहलू कहां हैं? हमारे लोकतंत्र का महापर्व जनता की समस्याओं और जन सरोकारों को लेकर जीवंत बहस का अवसर क्यों नहीं बन पा रहा है? सार्वजनिक जीवन मर्यादा तथा लोक-लाज से चलता है। पर इस तकाजे का अहसास बहुत क्षीण हो गया है। जहां कुएं में ही भांग पड़ी हो और इसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के शीर्ष नेता भी शामिल हों, तो निर्वाचन आयोग को कैसी सांसत महसूस होती होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। अगर शीर्ष नेताओं के बोल बिगड़े होंगे, तो उन्हें अपना नायक मानने वाले और उनके पीछे चलने वाले कार्यकर्ताओं का राजनीतिक प्रशिक्षण कैसा होगा? कहने को भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पर यह तथ्य भारत की विशाल आबादी की तरफ संकेत करता है, या हमारी लोकतांत्रिक चेतना के विकास की तरफ?
साभार- मोह्हमद कुमैल के ब्लॉग 'वजूद 'से