उत्तराखंड में आपदा के निशांउत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बसे लोग हर साल प्राकृतिक चुनौतियों से दो-चार होते हैं। जल प्रलय की चेपट में आने से लगभग हर साल कितनी जिंदगियां मौत के मुंह में समा जाती हैं। मगर क्या हमने इन प्राकृतिक त्रास्दियों से कुछ सिखा है शायद नहीं। पहाड़ों में आज भी कई आपदा ग्रस्त इलाके ऐसे हैं जिन्हें मदद की दरकार है। आज भी कई लोग विस्थापन की मांग को लेकर दून की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। कहर के लिए प्रकृति नहीं बल्कि कोई और है जिम्मेदार!आपदा के लिए प्रकृति को कठघरे में खड़ा करना आसान है, शायद यही वजह है कि समस्या की असली जड़ को नजरंदाज किया जाता है। अगर प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की पूरी तैयारी होती तो शायद आज यह दिल दहलाने वाली तस्वीरें हमारे सामने नहीं होती। यह बात सही है कि बादल फटने और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता लेकिन नदियों के किनारे होने वाले निर्माण, अवैध खनन, वनों की कटाई के लिए कानून का कड़ाई से पालन किया जाए तो जान-माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।पुर्ननिर्माण की क्या है रफ्तार ?आपदा पुर्नर्निमाण, विस्थापन जैसी समस्याएं लम्बे वक्त से मंह बाएं खड़ी हैं, लेकिन सरकारी तंत्र इस ओर गौर करने की जहमत तक नहीं उठा रहा। नजर उठा कर आप जहां भी देखें, सरकारी हिला हवाली के ढेरों नज़ारे आपको दिख जाएंगे। त्रास्दी के ज़ख्मों के गम खुद में सिमेटे यह राज्य आज बदहाली के आंसू रोने को मजबूर है।सरकारी सुस्ती की वजह क्या ?आपदा में क्षतिग्रस्त हुए रास्ते अब भी भूस्खलन की चपेट में तो हैं ही साथ ही सड़क के उबड़-खाबड़ रास्ते भी इतने खराब हो चुके हैं कि अब छोटे वाहनों की आवाजाही भी यहां से बमुश्किल ही होती है। ऐसे में ग्रामीणों को आज भी खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। हर पल किसी अनहोनी का डर लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है बावजूद इसके स्थानीय बाशिंदे जान हथेली में डाल इन खतरनाक रास्तों से सफर कर रहे हैं। वहीं सवालों के घेरे में खड़ा जिम्मेदार विभाग हर बार हालात जल्द सुधारने के लाख दावे तो करता है लेकिन धरातल पर कुछ होता नज़र नहीं आता। प्रस्तुति टीम अंग्वाल