खड़ाऊ पहनने का प्रचलन पुरातन काल से चला आ रहा हैं , लकिन आज वर्तमान युग में आधुनिकरण के चलते इनकी जगह चमड़े व रबड़ के जूते -चप्पलों ने ले ली है। लेकिन इनके लाभ को जनाने वाले लोग और साधु-संत आज भी इनका प्रयोग करते हैं,लेकिन अब जब आप किसी संत या बुर्जग को खड़ाऊ पहनते देखते होंगे तो आपके जहन में सवाल उठता होगा कि आखिर ये लोग खड़ाऊ या लड़की की चप्पल क्यों पहनते हैं। आइए हम बताते हैं कि खड़ाऊ पहने के पीछे की विचारधारा के बारे में...
असल में खड़ाऊ पहनने की सोच पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। गुरुत्वाकर्षण का जो सिंद्धात वैज्ञानिकों ने बाद में बताया उसके बारे में साधु-संत लोग पहले से ही जानते थे। ऋृषि-मुनियों ने काफी सालों पहले से ही इससे जुड़े विज्ञान को समझ लिया था। वैज्ञानिकों के सिद्धांत के अनुसार हमारे शरीर में प्रवाहित होने वाली विधुत तरंगे गुरुत्वार्कषण के कारण पृथ्वी द्वारा खींच ली जाती हैं ।
वैज्ञानिकों का कहना हैं कि अगर यह प्रक्रिया लगातार चलती रहें तो इससे शरीर की जैविक शक्ति (वाइटल्टी फोर्स) खत्म होने लगती है। इसी जैविक शक्ति के संरक्षण के लिए साधु-संतो ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा का आरंभ किया था, ताकि इससे शरीर की विधुत तरंगो का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके।
वहीं पुरातन काल में चमड़े के जूतों का कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग के द्वारा बहिष्कार किया गया था। कपड़े के जूते का प्रयोग भी कुछ ज्यादा सफल नहीं हो पाया था। जबकि लड़की के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों को अपत्ति नहीं थी। लड़की की खड़ाऊ पहनने के प्रचलन को आगे लाया गया। अब वह वर्तमान के आधुनिक युग में खड़ाऊ को ऋृषि-मुनियों की पहचान के रूप में देखा जाता है।