नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अब दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय की नाबालिग लड़कियों के खतना की प्रथा को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करेगी। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यी पीठ ने सोमवार को इस मामले की आगे की सुनवाई के लिए पांच जजों की संविधान पीठ के पास भेजने का आदेश दिया है। इस मामले को लेकर केंद्र की मोदी सरकार ने भी कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए मामलों को सुनवाई के लिए संविधान पीठ के पास भेजने का अनुरोध किया था। हालांकि पिछली सुनवाई में मुस्लिम समूह की ओर से कोर्ट में पेश हुए वकील एएम सिंघवी ने दलील दी थी कि बच्चियों के खतना को पॉक्सो एक्ट के तहत अपराध कहना गलत है । वहीं केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका का समर्थन करते हुए कहा था कि धर्म की आड़ में लड़कियों का खतना करना जुर्म है और वह इस पर रोक का समर्थन करता है।
'खतना धार्मिक रस्म है , विरोध गलत है'
असल में पिछली सुनवाई के दौरान मुस्लिम समूह के वकील एएम सिंघवी ने कोर्ट में कहा था कि जिस तरह बच्चियों के खतने को पॉस्को एक्ट के तहत अपराध करार दिया जा रहा है, वह गलत है। असल में इसे अपराध कहना ही गलत है क्यों अपराध गलत नीयत के चलते होता है जबकि पुरुषों के खतना की तरह महिलाओं के खतना का भी विरोध नहीं होना चाहिए। यह एक धार्मिक रस्म है।
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7 साल सजा का प्रावधान
इस मुद्दे पर केंद्र की मोदी सरकार ने पूर्व में इस मुद्दे पर हो रही सुनवाई के दौरान कहा था कि इसके लिए दंड विधान में 7 साल तक कैद की सजा का प्रावधान भी है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने दाऊदी बोहरा मुस्लिम समाज में आम रिवाज के रूप में प्रचलित इस इस्लामी प्रक्रिया पर रोक लगाने वाली याचिका पर केरल और तेलंगाना सरकारों को भी नोटिस जारी किया था। याचिकाकर्ता और सुप्रीम कोर्ट में वकील सुनीता तिवारी ने याचिका दायर कर इस प्रथा पर रोक लगाने की मांग की है।
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दलीलों में दम नहीं - सुप्रीम कोर्ट
इससे पहले कोर्ट ने कहा था कि यह दलील साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय की नाबालिग लड़कियों का खतना 10वीं सदी से होता आ रहा है इसलिए यह आवश्यक धार्मिक प्रथा का हिस्सा है जिस पर अदालत द्वारा पड़ताल नहीं की जा सकती।
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जानिए वकील ने क्या दी थी दलील
इस सुनवाई के दौरान मुस्लिम समुदाय के वकील सिंघवी ने कोर्ट में कहा था कि यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत संरक्षित है, जो कि धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित है। हालांकि कोर्ट ने उनकी इस दलील पर असहमति जताई । कोर्ट ने कहा कि यह तथ्य पर्याप्त नहीं कि यह प्रथा 10वीं सदी से प्रचलित है, इसलिए यह धार्मिक प्रथा का आवश्यक हिस्सा है । ऐसे में इस प्रथा को संवैधानिक नैतिकता की कसौटी से गुजरना होगा ।
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प्रक्रिया लिंग के आधार पर भेदभाव करती है
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पुरानी सुनवाई के दौरान कहा था कि नाबालिग लड़कियों का खतना परंपरा संविधान के अनुच्छेद-21 और अनुच्छेद-15 का उल्लंघन है। यह प्रक्रिया जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धर्म, नस्ल, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव करता है । यह अनुच्छेद-21 का उल्लंघन है क्योंकि इसमें बच्ची को आघात पहुंचाया जाता है ।
पालतू भेड़ बकरियां हैं क्या ये लड़कियां?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि महिला सिर्फ पति की पसंदीदा बनने के लिए ऐसा क्यों करे? क्या वो पालतू भेड़ बकरियां है? उसकी भी अपनी पहचान है । कोर्ट ने कहा था कि ये व्यवस्था भले ही धार्मिक हो, लेकिन पहली नज़र में महिलाओं की गरिमा के खिलाफ नज़र आती है । कोर्ट ने ये भी कहा था कि सवाल ये है कि कोई भी महिला के जननांग को क्यों छुए? वैसे भी धार्मिक नियमों के पालन का अधिकार इस सीमा से बंधा है कि नियम 'सामाजिक नैतिकता' और 'व्यक्तिगत स्वास्थ्य' को नुकसान पहुंचाने वाला न हो ।