नई दिल्ली । पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने ना केवल अपनी राजनीति से अपने प्रशंसक बनाए, बल्कि वह इस युग के एक बड़े कवियों में भी शुमार थे। हालांकि उन्होंने कभी अपनी काव्य रचनाओं के लिए किसी मंच का सहारा नहीं लिया लेकिन इस कालजयी राजनीतिज्ञ ने अपने कविताओं को संसद में कुछ इस तरह पेश किया कि दूसरों दलों के राजनेता इनके विपक्षी तो हुए पर कभी विरोधी नहीं हुए। सदन हो या उनकी रैलियां अमूमन वह अपने चुटीले अंदाज से और अपनी कविताओं के माध्यम से सुनने वाले को बांधे रखते थे। अटल भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के उदारवादी चेहरा रहे और एक लोकप्रिय जननेता के तौर पर पहचाने गए।
एम्स में भर्ती वाजपेयी के स्वास्थ्य को लेकर जहां एक ओर पूरे देश में प्राथनाओं का दौर जारी रहा, वहीं उनकी कविताएं एक बार फिर सोशल मीडिया में छा गईं। चलिए आपको उनकी ऐसी ही 5 कविताओं से रूबरू करवाते हैं।
1. दो अनुभूतियां
-पहली अनुभूतिबेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
-दूसरी अनुभूति
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
2. मौत से ठन गई
ठन गई , मौत से ठन गई
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई
मौत से ठन गई
3 - एक बरस बीत गया
झुलासाता जेठ मास , शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का , अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग, किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक , गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन , गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा , मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
4 : कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं , घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा, हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा, कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में
घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में
जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा, सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा , कदम मिलाकर चलना होगा.
कुछ कांटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.
5. दूध में दरार पड़ गई
दूध में दरार पड़ गई , खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया, बंट गये शहीद, गीत कट गए
कलेजे में कटार दड़ गई, दूध में दरार पड़ गई.
खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है.
वसंत से बहार झड़ गई , दूध में दरार पड़ गई.
अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता.
बात बनाएं, बिगड़ गई, दूध में दरार पड़ गई.